दिलीप साहब को बॉलीवुड के अलावा राजनीति के क्षेत्र में पहचाना जाता था। कारगिल युद्ध के समय तात्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उनका प्रयोग शांतिदूत के तौर पर भी किया था। वह देश की राजनीति में करीब से जुड़े रहे।
माना जाता है कि दिलीप साहब का खुले तौर पर कांग्रेस की ओर झुकाव था लेकिन इसके बावजूद उनके संबंध शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के साथ भी बहुत अच्छे थे। 1998-99 में एकाध बार तल्ख संबंधों के अलावा दोनों के ताल्लुकात हमेशा बहुत अच्छे रहे। 98-99 का दौर वही था, जब पाकिस्तान सरकार ने दिलीप कुमार को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान ए इम्तियाज़’ देने की मंशा जताई थी।
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उस वक्त पाकिस्तान को लेकर दिलीप कुमार के रुख को जानते हुए भी ठाकरे ने सम्मान स्वीकार करने पर ऐतराज किया था। ठाकरे के विरोध से बहुत राजनीतिक बवाल मचा। दिलीप कुमार को सबसे ज्यादा चोट इस बात से पहुंची कि कार्टूनिस्ट से राजनीति में आने वाले तीन दशक पुराने उनके दोस्त ने उनकी निष्ठा और देशभक्ति पर सवाल उठाए।
इस बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखा है। दिलीप कुमार ने उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी से इस बारे में सलाह मांगी कि उन्हें ये अवॉर्ड लेना चाहिए या नहीं। इस पर वाजपेयी ने कहा था कि बिलकुल लेना चाहिए, क्योंकि वे कलाकार हैं। कलाकार राजनीतिक और भौगोलिक सीमाओं से परे होता है।
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ये पहला मौका नहीं था जब इस कलाकार को धर्मिक जुड़ाव के कारण निशाना बनाया गया। बहुत पहले साठ के दशक में ‘गंगा जमुना’ को सेंसर बोर्ड से हरी झंडी मिलने के बाद कोलकाता पुलिस की एक टीम ने उनके मुंबई स्थित घर पर छापा डाल दिया।
दिलीप कुमार को कहा गया कि वे पाकिस्तानी जासूस है और उन्हें गिरफ्तार करने की धमकी भी दी गई। दिलीप कुमार के घर पर ये कार्रवाई का आधार ये था कि कोलकाता पुलिस ने एक पाकिस्तानी जासूस को गिरफ्तार किया था, जिसके पास से एक डायरी मिली थी।
डायरी में दिलीप कुमार समेत बहुत से बड़े लोगों के नाम थे। इस तफ्तीश में पुलिस का सबसे ज्यादा घटियापन ये दिखा कि उसने लिस्ट में दर्ज किए गए हिंदुओं को कांट्रेक्ट माना और मुसलमानों को दुश्मन का एजेंट। चूंकि पूरा मामला ही बेवजह के तर्कों पर था, लिहाजा उससे इस बड़े कलाकार को बहुत तकलीफ हुई।
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