-दिनेश ठाकुर
उन्नीसवीं सदी के महान रूसी साहित्यकार लियो तॉलस्तॉय ( Leo Tolstoy ) ने फरमाया था- 'खुशहाल परिवार के सदस्य एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहते हैं और हरेक नाखुश परिवार अपने ही किसी कारण से नाखुश रहता है।' इस थीम पर 1998 में फ्रांस के फिल्मकार पैट्रिक शेरौ ( Patrice Chéreau ) ने सलीकेदार फिल्म 'दोज हू लव मी केन टेक द ट्रेन' ( Those Who Love Me Can Take The Train ) बनाई थी। इसमें एक परिवार के सदस्य शादी, सालगिरह, सामाजिक जलसे या अंत्येष्टि के मौकों पर मिलते हैं और एक-दूसरे के सुख-दुख साझा करने के बजाय अतीत की उन घटनाओं को ज्यादा उलटते-पलटते हैं, जो नजदीकियां बढ़ाने के बजाय फासले बढ़ाने का सबब बनती हैं।
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टोक्यो फिल्म समारोह में भारत की नुमाइंदगी
इसी थीम पर अब मराठी में 'कारखनीसंची वारी' ( कारखनीसों की यात्रा। कारखनीस मराठी जाति है) नाम की फिल्म बनाई गई है, जिसने हाल ही सम्पन्न टोक्यो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भारत की नुमाइंदगी की। अंग्रेजी में फिल्म का नाम 'एशेज ऑन ए रोड ट्रिप' ( Ashes On A Road Trip ) रखा गया है। सितम्बर में वेनिस फिल्म समारोह में दिखाई गई चैतन्य तम्हाणे की 'द डिसाइपल' के बाद यह दूसरा मौका है, जब किसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के लिए मराठी फिल्म को चुना गया। यह संकेत है कि दूसरी भारतीय भाषाओं के मुकाबले मराठी में जमीन से जुड़ी सार्थक फिल्मों पर ज्यादा काम हो रहा है।
शोक के मौके पर हिसाब-किताब
निर्देशक मंगेश जोशी की 'कारखनीसंची वारी' में पुणे के एक कारखनीस परिवार का किस्सा है। परिवार का हर सदस्य 'उसी घर से अपना यकीं उठ गया है/ जिसे मर गए हम बनाते-बनाते' वाली भावनाएं रखता है। परिवार के मुखिया पुरु दादा के देहांत के बाद उनकी आखिरी तमन्ना के मुताबिक उनके तीनों छोटे भाई (मोहन अगाशे, प्रदीप जोशी, अजीत अभयंकर) उसके पुत्र (अमय वाघ) के साथ अस्थियां विसर्जित करने पुणे से पुश्तैनी गांव के लिए रवाना होते हैं। मौका शोक का है, लेकिन सभी का जोर परिवार में अपनी अहमियत जताने पर है। उनकी दिलचस्पी पुरु दादा की वसीयत खुलने में ज्यादा है। यात्रा के दौरान कुछ पुरानी घटनाएं खुलती हैं और हर सदस्य का चरित्र उजागर होता है।
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संयुक्त परिवार का बिखराव
भारत में संयुक्त परिवार के बिखराव ने लोगों को कितना अकेला किया है, किस हद तक स्वार्थी बना दिया है और लगाव कैसे अलगाव में तब्दील हो चुका है, 'कारखनीसंची वारी' ऐसे तमाम पहलुओं को टटोलती है और नए जमाने में रिश्तों की हकीकत को तल्ख अंदाज में बयान करती है। फिल्म से मराठी के जाने-पहचाने कलाकार जुड़े हुए हैं। इनमें से मोहन अगाशे हिन्दी फिल्मों में भी सक्रिय हैं। बाकी कलाकारों में मृणमयी देशपांडे, गीतांजलि कुलकर्णी, वंदना गुप्ते और शुभांगी गोखले शामिल हैं।
निखर रहा है मंगेश जोशी का हुनर
मंगेश जोशी ( Mangesh Joshi ) का हुनर फिल्म-दर-फिल्म निखर रहा है। करीब नौ साल पहले उनकी 'ही' सुर्खियों में रही थी। इसमें मुम्बई में कचरा बीनने वाले 13 साल के बच्चे का मार्मिक किस्सा था, जिसे एक शॉर्ट फिल्म में काम करने के बाद 'हीरो' कहकर चिढ़ाया जाता है और जिसके बदहाल दिन-रात ज्यादा नहीं बदलते। मंगेश की पिछली फिल्म 'लेथ जोशी' में लेथ मशीन पर काम करने वाले एक मुफलिस के जरिए उन मजदूरों की दशा का जायजा लिया गया था, आधुनिक मशीनें जिनकी रोजी-रोटी का सहारा छीन लेती हैं। मंगेश की फिल्मों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि भारत इनके हर फ्रेम में महसूस होता है। यह खूबी उन्हें इस दौर के दूसरे फिल्मकारों से अलग करती है।
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