धर्म का अर्थ अपने कर्म को पहचानने से है, यह सीधे शब्दों में आंतरिक नियंत्रण का प्रतीक है। धर्म हर इंसान का अपना निजी है पर इस धर्म की व्याख्या करने वालों ने इतना रूढ़िवाद इसमें जोड़ दिया है जिस पर फ़िल्मों ने समय समय पर कटाक्ष किया है। धर्म से जुड़ी अनैतिक रस्में हो या दो धर्म के बीच कट्टरता इनपर कुठाराघात करते हुए कई फिल्में बनी है जिन्होंने समाज को आइना दिखाने का कार्य किया है। आइये जानते हैं ऐसी कुछ फिल्मों के बारे में:-
1) सिंघम-रिटर्न्स
2014 में आई सिंघम रिटर्न्स अजय देवगन की एक सुपरहिट मूवी है पर फ़िल्म के रिलीज़ के बाद कुछ हिन्दू संगठनों ने विवाद खड़ा कर दिया। कारण था फ़िल्म में दिखाए गए विलन अमोल गुप्ते जिन्होंने सत्यराज चंदर की भूमिका निभाई थी। अमोल दरअसल एक बाबा की भूमिका निभा रहे हैं जिनके क्रिया कलाप अनैतिक है और उनकी बड़े बड़े राजनीतिज्ञों से अच्छी पैठ है। फ़िल्म कहीं न कहीं धर्म की ठेकेदारी कर रहे बाबाओं पर भी एक उत्तम कटाक्ष है।
2) ओ माई गॉड
2012 में आई परेश रावल और अक्षय कुमार की जबरदस्त फ़िल्म ओ माइ गॉड जो एक गुजराती प्ले काँज़ी विरुद्ध काँज़ी से प्रेरित था, फ़िल्म ने रूढ़िवादिता पर बेहतरीन तरीके से कुठाराघात किया है। फ़िल्म में परेश रावल एक नास्तिक का किरदार निभा रहे हैं जो भगवान के विरुद्ध कोर्ट केस करता है। कई सीन है जहां धर्म से जुड़ी कुछ मर्मस्पर्शी बातों को उजागर किया गया है। अक्षय फ़िल्म में भगवान कृष्ण की भूमिका निभा रहे हैं।
3) पी के
पी के का एक सीन जहां दूसरे ग्रह से आया 'पी के'(आमिर खान) भगवान शिव का भेष धारण किये हुए एक रंगमंच के कलाकार से मिलता है। कई संगठनों ने फ़िल्म को 'एन्टी-हिन्दू' कहा जबकि इस फ़िल्म में हर मजहब से जुड़ी अनैतिक रूढ़िवादिता पर व्यंग किया गया है। जब भी कोई 'धर्म गुरु' अपने प्रवचन में अप्रासंगिक बातें करता है तो पीके उसे 'रॉंग नंबर' कह कर संबोधित करता है। फ़िल्म में यह भी दिखाया गया है कि कई रस्म-रिवाज़ इंसान सिर्फ अपनी असुरक्षा हेतु करता है।
4) वाटर
2005 में आई दीपा मेहता द्वारा निर्देशित और अनुराग कश्यप द्वारा लिखित वाटर अपने रिलीज़ से पहले ही विवादों में आ गयी थी। फ़िल्म की पृष्ठभूमि बनारस में आधारित है और कथा है 1938 की जिस समय बाल विवाह चरम पर था। फ़िल्म में दिखाया गया था कि विधवाओं का जीवन कितना कष्टप्रद हुआ करता था। एक विधवा को बनारस में आश्रम में अपना जीवन गुज़ारना पड़ता था और उसके पति की मृत्यु उसके पुराने जन्म के कर्म से जोड़ा जाता था। फ़िल्म में लिसा रे और जॉन अब्राहम ने बेहद 'हार्ड हिटिंग' एक्टिंग की है।
5) 1947 अर्थ
1999 में आई यह फ़िल्म धर्म से जुड़ी कुछ धारणाओं को बड़े पर्दे पर प्रदर्शित करती है। कहानी है लाहौर की, विभाजन के समय की। जहाँ 3 लोग दिल नवाज़( आमिर खान), शांता (नंदिता दास) और हसन (राहुल खन्ना) यह तीन बचपन के दोस्त होते है पर विभाजन किस तरह दो संप्रदायों के मध्य वैमनस्यता लाता है, कैसे समाज परिवर्तित होता है और कैसे दोस्त दुश्मन बनते हैं सिर्फ़ मजहब के लिए, दिखाया गया है।
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