जब हॉलीवुड ने यह जताया कि उनके पास मार्लन ब्रैंडो है तब भारत से आवाज़ आयी कि हमारे पास भी दिलीप कुमार है। यूसुफ खान जो फ़िल्म उद्योग में दिलीप कुमार नाम से प्रसिद्ध हैं, दिलीप साहब जिन्होंने महज 22 वर्ष की उम्र में ज्वार भाटा नामक फ़िल्म से डेब्यू किया। 6 दशक में फैले हुए कैरियर में दिलीप साहब ने 65 फिल्मों में काम किया, बेहद कम फ़िल्में पर हर फिल्म खुद में एक नगीना। दिलीप कुमार से पहले भी फ़िल्म उद्योग में स्टार्स थे पर दिलीप कुमार वो पहले 'एक्टर' थे स्टार बने। शायद इसलिए दिलीप साहब को 'द फर्स्ट ख़ान' कहा जाता है। दिलीप कुमार की अभिनय शैली मेथड एक्टिंग थी। उनके साथ या उनके पहले जितने भी अभिनेता थे उनके अभिनय में 'थेएट्रिक्स' की झलक प्रतिबिंबित होती थी पर 'मेथड एक्टिंग' बॉलीवुड में दिलीप कुमार लेकर आए।
मेथड एक्टिंग को ली स्ट्रासबर्ग तकनीक भी कहा जाता है, जिसे 20वीं सदी के महान अभिनेता और एक्टिंग गुरु ली स्ट्रासबर्ग प्रचलन में लाये थे। उनका ये मेथड स्तानिस्लाव्स्की सिस्टम और मास्को आर्ट थिएटर से प्रभावित था। यह तकनीक अभिनेताओं को उनके द्वारा निभाए जाने वाले किरदार और उसकी सामग्री (props) को संवय के जीवन से और अपनी निजी जिंदगी की घटनाओं से जोड़ कर एक तेज भावनातमक रिश्ता बनाना सिखाती है। सरल शब्दों में कहा जाए कि अभिनेता अपने किरदार में कुछ इस प्रकार जज़्ब हो जाये कि पर्दे पर स्टार नहीं वो किरदार नज़र आए। यहाँ दिलीप साहब की एक फ़िल्म का उदाहरण देना चाहूंगा। फ़िल्म का नाम है कोहिनूर जो 1960 में रिलीज़ हुई थी, उसमें एक गाना था 'मधुबन में राधिका नाचे रे' इस गाने में अभिनेता सितार बजा रहा है। दिलीप साहब ने इस गाने की शूटिंग सबसे आखिर में करने की हिदायत दी क्योंकि वो सच में सितार सीखना चाह रहे थे इस गाने की ख़ास बात यह है कि शूट करने से पहले बाकायदा दिलीप साहब ने सितार बजाना सीखा और जब सितार कोई सचमुच बजाता है तो उसके तार इंसान को चुभते हैं, तार चुभने से जो चेहरे पर शिकन आती है वो तक आप इस गाने में देख सकते हैं।
दिलीप कुमार की पहली फ़िल्म जो बॉम्बे टॉकीज के अंतर्गत बनी थी, 'ज्वार भाटा' वो फ्लॉप रही। उनदिनो सिर्फ एक ही फ़िल्म मैगज़ीन चला करती थी 'फ़िल्म इंडिया' जिसके एडिटर होते थे बाबूराव पटेल और उन्होंने फिल्म की और दिलीप सहाब के काम की भरपूर आलोचना की। दिलीप कुमार की तीसरी फिल्म मिलन सुपरहिट रही और उस वर्ष ही आयी जुगनू और शहीद ने उन्हें सफलता के शिखर पर पहुंचा दिया। दिलीप कुमार वो अभिनेता हैं जिनकी फ़िल्मों ने लोगों को कई दशकों तक प्रेरित किया। उनकी फिल्म चाहे मधुमति हो,राम और श्याम या इंडिया की पहली लव ट्रायंगल अंदाज़ सब को प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में अपनाया गया। पहली दो फिल्मों की असफलता के कारण दिलीप साहब अभिनय के बारे में पढ़ने लगे और अपनी आवाज़ पर काम करने लगे। किरदार में कुछ इस तरह जज़्ब हो जाना कि किरदार की तरह ही सोचने लगना, इस मेथड एक्टिंग की वजह से उन्हें 'ट्रेजेडी किंग' का खिताब भी मिला।
अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार 1982 में रिलीज़ हुई फ़िल्म शक्ति में एक साथ दिखे थे और यह फ़िल्म दर्शकों के लिए किसी उत्सव से कम न थी। बच्चन साहब ने कई दफ़े और कई साक्षात्कारों के माध्यम से बताया है कि अगर बिग बी किसी के फैन थे तो दिलीप कुमार के, उनके हाव भाव या स्थिरतापूर्ण अभिनय में दिलीप कुमार की छवि दिखती है। उदाहरण के तौर पर बात करें अमिताभ बच्चन की फ़िल्म डॉन की जहां एक ओर अमिताभ अंडरवर्ल्ड डॉन की भूमिका निभा रहे हैं वहीं दूसरी ओर एक गांव का व्यक्ति सीधा साधा विजय है। दोनों की बॉडी लैंग्वेज, यहाँ तक कि चलने का तरीका भी अलग है। अब बात करें यदि दिलीप कुमार की तो वे नया दौर नामक फ़िल्म में एक 'रिक्शा चालक' बने हैं, एक कम पढ़े लिखे रिक्शा चलाने वाले का हाव भाव अपनाने के लिए दिलीप अपना मुंह हल्का सा खुला रखते थे और अपनी आंखें स्थिर नहीं करते थे, जो एक दबे हुए शोषित व्यक्ति के हाव भाव होते हैं। वहीं अगर 'मुग़ल-ए-आज़म' की बात करें तो दिलीप उसमें राजकुमार सलीम की भूमिका में हैं उनका किरदार नज़रें मिला कर बात करता है और हर डायलॉग के बाद उनके होंठ जुड़ जाते हैं, यह फ़रमान देने का सूचक है।
इन बारीकियों को आमिर खान ने पकड़ा है और वर्तमान युग में अगर मेथड एक्टिंग के लिए किसी को जाना जाता है तो वो हैं आमिर खान। जब आप आमिर को पर्दे पर देखते हैं तो 'आमिर-द सुपरस्टार' कहीं गायब हो जाता है और सिर्फ वह किरदार नज़र आने लगता है। 2012 में एक फ़िल्म आयी थी तलाश जिसमें आमिर को अंडर वाटर स्विमिंग करनी थी, इससे पहले आमिर को तैरना नहीं आता था पर सिर्फ एक सीन शूट करने के लिए आमिर ने बाकायदा तैराकी सीखी। दिलीप साहब और अमीर खान का तुलनात्मक किस्सा एक यह भी है कि जब 1951 में फ़िल्म दीदार आयी थी तो उसमें दिलीप कुमार ने एक नेत्रहीन का किरदार निभाया था। एक अंधे व्यक्ति का किरदार दिलीप कुमार से पहले भी कई लोग निभा चुके हैं पर उनका किरदार असलियत से दूर लगता था, अंधे व्यक्ति का किरदार निभाने के लिए दिलीप कुमार महालक्ष्मी स्टेशन के पास, अशोक कुमार की सलाह पर, एक अंधे फकीर को 'ऑब्सर्व' करने लगे, यहां तक कि उससे दोस्ती भी की और यह नोट किया कि एक व्यक्ति जिसे कुछ दिख नहीं रहा उसकी आँखों में कोई भाव नहीं उतरना चाहिए डायलॉग बोलते हुए। छोटे छोटे तौर तरीके अपने अभिनय में डाल उन्होंने दीदार फ़िल्म की जो सुपरहिट हुई। बात आमिर खान कि करें तो आमिर को जब भुवन का किरदार निभाना था लगान में तो उन्होंने अपनी पलकों को 'कर्ल' किया था जिससे उनका किरदार पर्दे पर मासूम दिखे क्योंकि भुवन एक गांव का मासूम किरदार था।
आज कल हर अभिनेता खुद को मेथड एक्टर कहलवाना चाहता है पर नई खेप में अगर कोई सचमुच मेथड एक्टर है तो वो हैं राजकुमार राव जो किरदार में कुछ इस हद तक उतर जाते हैं कि 'द हीरो राजकुमार राव' कहीं खो जाता है चाहे वो उनकी फिल्म शाहिद हो या ट्रैप्ड। बहरहाल दिलीप साहब 97 वर्ष के हो चुके हैं, 8 फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार, दादा साहब फाल्के पुरस्कार और पद्म विभूषण से सम्मानित हैं। अभिनय की दुनिया की बात करें तो दिलीप साहब एक धरोहर हैं, ऐसा अदाकार जो न पहले कभी था और न होगा।
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